उमेश चतुर्वेदी। बिहार की 243 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस 61 सीटों पर चुनाव लड़ी और सिर्फ छह सीटें हासिल कर सकी, फिर भी राहुल की वैचारिकी और रणनीति पर पार्टी में सवाल नहीं उठ रहा है। राहुल बिहार में इसलिए नाकाम हुए, क्योंकि वह अपना संदेश लोगों तक नहीं पहुंचा सके। राजनीति में प्रतीकों के जरिए लोक संदेश की स्थापित परंपरा है। शीर्ष नेताओं का आम लोगों से रस्मी मिलना-जुलना उनकी सदाशयता और सादगी के प्रतीक के रूप में स्थापित हो गया है। किसी हस्ती का सामान्य दिखना और आम लोगों जैसे काम करना वोटरों के समर्थन की गारंटी माना जाता रहा है। यही वजह है कि राहुल गांधी जब भी ऐसा करते हैं, उनसे उम्मीदें बढ़ जाती हैं। यह बात और है कि राजनीति में कामयाबी पाने का यह टोटका कांग्रेस के लिए मुफीद नहीं रहा है।

बिहार में राहुल गांधी ने आम आदमी बनने की कई कोशिशें कीं। ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान मोजे पहने ही मखाने के पानी भरे खेत में वे उतरे और बाद में चुनाव प्रचार के दौरान मुकेश सहनी के साथ मछली पकड़ने के लिए तालाब में उतर गए। राहुल जब ऐसा करते हैं तो बौद्धिकों का एक तबका इसे अभूतपूर्व कदम साबित करने लगता है। हरियाणा चुनाव के दौरान सोनीपत में जब राहुल गांधी ने धान-रोपाई की और ट्रैक्टर चलाया, तब भी ऐसी ही उम्मीदों के पंख लग गए थे। ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दोनों चरणों में भी ऐसे कई सारे नजारे दिखे। तब एक वर्ग की नजर में राहुल गांधी की ऐसी कोशिशों से राजनीति बदलने लगी थी, लेकिन तेलंगाना छोड़, उनके ऐसे कदमों का कोई चुनावी फायदा नहीं मिला। सवाल है कि राहुल गांधी के इन लोक लुभावन कदमों के बावजूद लोग कांग्रेस के साथ क्यों नहीं खड़ा हो रहे?

स्वाधीनता आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी रही कांग्रेस अखिल भारतीय संगठन है। वह इस पर गर्व कर सकती है, लेकिन संगठन को गतिशील बनाने वाले सही मुद्दों और लोकमर्म को छूने वाले विचारों से वह लगातार दूर हो रही है। राहुल गांधी उन्हीं मुद्दों को ज्यादा उछालते हैं, जिन्हें उनके वामपंथी सलाहकार सुझाते हैं। बौद्धिक और अकादमिक जगत इससे चाहे जितना भी आकर्षित हो, जमीनी स्तर पर वे मुद्दे अस्वीकार्य हो चुके हैं। निजीकरण की कुछ खामियां हैं, लेकिन भूलना नहीं होगा कि निजीकरण ने चमक-दमक भी बढ़ाई है। भले ही एक वर्ग तक निजीकरण की रोशनी नहीं पहुंच सकी है, लेकिन उस वर्ग का भी सपना चमक को हासिल करना है। वामपंथी वैचारिकी इसे नहीं समझती। वह जाहिर करती रही है कि अतीत की तरह अब भी समूचा देश अंधेरे में डूबा है। इन्हीं वामपंथी सलाहकारों के कारण कांग्रेस के अंदरूनी हालात ऐसे बन गए हैं कि कुछ वरिष्ठ नेता पार्टी को उबारने को लेकर राय देने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्हें डर ये है कि कड़वी दवा सुझाना उनके लिए हानिकारक हो सकता है। लिहाजा वे राय देने से बच रहे हैं।

कांग्रेस आलाकमान के तमाम सलाहकारों का सामाजिक सोच जमीनी हकीकत के बजाय वामपंथी दर्शन से ज्यादा प्रभावित है। इसके अनुसार ऊंच-नीच और जात-पांत का विचार समूचे देश में एक जैसा है, लेकिन यह अधूरा सच है। जातिवाद देश की एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन आज जाति और मजहब के संदर्भ में समूचे देश को एक फार्मूले से समझना संभव नहीं। राहुल गांधी के सलाहकारों की टीम उन्हें इसी फार्मूले पर बार-बार आगे बढ़ने का सुझाव देती है और वह एक ही गलती दोहराते जा रहे हैं। समूचा देश न तो एक तरह से सोचता है, न ही उसका एक-सा व्यवहार है। शीर्ष नेतृत्व की सलाहकार मंडली अलग-अलग हिस्सों की माटी के रंग, व्यवहार और विचार से बहुत दूर है।

राहुल गांधी को इंदिरा गांधी से सीखना चाहिए। भारतीय समाज को लेकर इंदिरा की समझ गहरी थी। यही वजह है कि वक्त और इलाके की परंपरा के मुताबिक किसी इलाके में ठेठ बहू बन जाती थीं तो किसी इलाके में आधुनिक महिला। कुछ इलाकों में वे अपने सिर पल्लू रखती थीं तो कुछ इलाकों में नहीं। आज इंदिरा रहतीं और वैसा करतीं तो शायद कांग्रेस के मौजूदा सिपहसालारों की नजर में वे दकियानूस मान ली जातीं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस की छतरी तले कई विचारधाराएं काम कर रही थीं।

इंदिरा काल के किंचित वामपंथीकरण को छोड़ दें तो पार्टी का नजरिया ज्यादातर मध्यमार्गी और समाजवादी ही रहा। इंदिरा काल में वामपंथी प्रभाव इतना नहीं रहा कि कांग्रेस अपनी बुनियादी विचारधारा को ही बदल दे, लेकिन आज पार्टी पर वामपंथ का खूब असर है। इसलिए उसके मुद्दे भी उससे प्रभावित हैं। वाम वैचारिकी हर मुद्दे को नैरेटिव विशेष के लिहाज से उछालती है। सांप्रदायिकता, मजहब और जाति से जुड़े उसके विचार पारंपरिकता से इतर हैं। भाजपा के खिलाफ हर बार सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाना इसी मंडली की कारसाजी होती है। इसका कैसे प्रतिकार करना है, भाजपा ने इसका सूत्र खोज लिया है। इसीलिए वह ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस को मात दे रही है। अपनी सोच के चलते ही कांग्रेस यूपी, बिहार जैसे राज्यों में उन दलों के छोटे भाई की भूमिका तक सीमित हो गई है, जिनका उदय गैरकांग्रेसवाद की बुनियाद पर हुआ। साक्षर और सूचना से लैस लोग इन प्रतीकों के छुपे संदेशों को समझने-बूझने लगे हैं, लेकिन कांग्रेस इसे नहीं समझ पा रही।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)