विचार: न्याय न देने वाला न्यायिक तंत्र, प्रक्रिया सुदृढ़ नहीं हुई तो विकसित भारत के लक्ष्य को पाने में हो सकती है कठिनाई
कुछ कानूनी फर्मों ने एआइ का उपयोग दस्तावेज तैयार करने, डाटा की समीक्षा करने आदि में अवश्य शुरू किया है, लेकिन अभी वह पर्याप्त तरीके से नहीं हो रहा है। अच्छा यह होगा कि एआइ के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए और ई-कोर्ट परियोजना पर इस तरह से अमल सुनिश्चित किया जाए, ताकि लंबित मामलों के तेजी से निपटारे में मदद मिले। इससे आम लोगों एवं निवेशकों को राहत मिलेगी और इसके नतीजे में आर्थिक प्रक्रिया को बल मिलेगा।
HighLights
- <p>लाखों मामले लंबित, करोड़ों रुपये फंसे</p>
- <p>न्यायाधिकरणों का उद्देश्य विफल</p>
- <p>एआई के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए</p>
संजय गुप्त। पिछले दिनों कमर्शियल ट्रिब्यूनलों यानी वाणिज्यिक न्यायाधिकरणों की शिथिल न्याय प्रक्रिया को लेकर दक्ष संस्था ने जो रिपोर्ट जारी की, वह आंखें खोलने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार एनसीएलटी, एनसीएलएटी, डीआरटी, आइटीएटी, टीडीसैट, सैट आदि में कुल 3.56 लाख मामले लंबित हैं। इन लंबित मामलों में 24.72 लाख करोड़ रुपये फंसे हैं। यह राशि 2024-2025 की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 7.48 प्रतिशत है।
इसका सीधा मतलब है कि इन लंबित मामलों के कारण देश का आर्थिक विकास प्रभावित हो रहा है। न्यायपालिका से इतर न्यायाधिकरणों की स्थापना इसलिए की गई थी, ताकि कंपनी और अन्य वित्तीय मामलों का निपटारा समय पर विशेष दक्षता वाले न्यायाधीश कर सकें। वित्तीय मामलों का समय पर निपटारा कर आर्थिक प्रशासन को सुगम बनाने, निवेशकों का भरोसा बनाए रखने के साथ इन न्यायाधिकरणों की स्थापना का एक अन्य उद्देश्य सामान्य अदालतों का बोझ कम करना भी था।
थिंक टैंक दक्ष की रिपोर्ट इंगित करती है कि न्यायाधिकरणों की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई, उसे ही वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। अपेक्षा यह की गई थी कि न्यायाधिकरण कंपनियों, शेयर धारकों और करदाताओं के विवादों का समाधान शीघ्र करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसे इससे समझा जा सकता है कि नेशनल कंपनी ला ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में किसी विवाद को निपटाने की समय सीमा 330 दिन है, लेकिन मामलों के निपटने में औसतन 752 दिन लगते हैं।
इसी तरह डेब्ट रिकवरी ट्रिब्यूनल (डीआरटी) में कोई मामला निपटाने के लिए 180 दिन की अवधि तय है, लेकिन 85 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में कहीं अधिक समय लगता है। यही स्थिति अन्य ट्रिब्यूनलों की भी है। स्पष्ट है कि न्यायाधिकरणों के स्थापित होने का जो लाभ मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा है। समस्या केवल यह नहीं कि न्यायाधिकरण समय पर विवादों का निपटारा नहीं कर पा रहे हैं।
समस्या यह भी है कि प्रायः उनके फैसलों की गुणवत्ता को लेकर प्रश्न उठते हैं। वित्तीय मामले जटिल होते हैं। जटिल मामलों को सुलझाने के लिए जैसी विशेषज्ञता वाले लोगों की आवश्यकता है, कई बार उसका भी अभाव दिखता है। रही-सही कसर तय समय तक काम न होने और वकीलों के दांवपेच से पूरी हो जाती है। दक्ष की रिपोर्ट में इसका भी उल्लेख किया गया है कि न्यायाधिकरण स्टाफ की कमी का सामना कर रहे हैं और वे संविदा कर्मचारियों पर भी अधिक निर्भर हैं।
हालांकि उच्चतम न्यायालय न्यायाधिकरणों की शिथिल न्याय प्रक्रिया से अवगत है, लेकिन समस्या का निराकरण कर सकने में उसकी भी सीमाएं हैं। सरकार इस समस्या से परिचित होने के बाद भी उसका ठोस समाधान खोजने के प्रति तत्पर नहीं दिखती। हम इसकी भी अनेदखी नहीं कर सकते कि न्यायाधिकरणों की तरह सामान्य न्यायालयों में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं। निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय में करोड़ों मामलों के लंबित होने का कारण आधारभूत ढांचे और संख्याबल का अभाव तो है ही, तारीख पर तारीख का सिलसिला भी है।
समय पर न्याय न मिलने की समस्या पर सुप्रीम कोर्ट के कई वर्तमान एवं सेवानिवृत्त न्यायाधीश अपनी चिंता प्रकट करते रहते हैं। ऐसी ही चिंता कार्यपालिका और विधायिका के लोग प्रकट करते रहते हैं। कभी न्यायपालिका के लोग न्याय में देरी की समस्या का ठीकरा सरकार पर फोड़ते हैं तो कभी सरकार के लोग न्यायपालिका पर। यह समझा जाना चाहिए कि एक-दूसरे के पाले में गेंद डालने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
इस समस्या का समाधान तब होगा, जब सरकार और न्यायपालिका, दोनों ही अपनी-अपनी हिस्सेदारी की जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए आगे आएंगे। दोनों ही पक्षों को समन्वय कायम कर समस्या का समाधान खोजना चाहिए, लेकिन अभी ऐसा होता हुआ दिखता नहीं। इसके दुष्परिणाम वे लोग भुगत रहे हैं, जिनके मामले न्यायालयों अथवा न्यायाधिकरणों में फंसे हुए हैं।
इससे इन्कार नहीं कि देश लगातार आर्थिक प्रगति कर रहा है। यह मानने के भी अच्छे-भले कारण हैं कि हम अगले दो-तीन दशक में विकसित देश के लक्ष्य के करीब होंगे, लेकिन विकास की इस यात्रा में यदि न्यायिक प्रक्रिया सुदृढ़ नहीं हुई तो गंतव्य तक पहुंचने में और देर हो सकती है। न्याय प्रक्रिया आर्थिक विकास में सहायक बननी चाहिए, लेकिन वह देर से दिए जाने वाले निर्णयों के कारण अक्सर बाधक बनती दिखती है।
न्याय मिलने में देरी से समाज के उन लोगों में तो निराशा घर करती ही है, जिनके मामले लंबित होते हैं। इसी के साथ वे लोग भी निराश होते हैं, जो यह लगातार देखते-सुनते हैं कि देश की अदालतों में समय पर न्याय नहीं मिलता। इससे न्यायपालिका के साथ-साथ शासन के प्रति भी लोगों की आस्था डिगती है। यह स्थिति किसी भी देश के लिए शुभ नहीं कही जा सकती। यह लोकतंत्र को कमजोर करने वाली स्थिति है। लोगों को समय पर सुगम तरीके से न्याय मिले, इसके लिए कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को मिलकर कदम उठाने होंगे।
आज देश के न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में मुकदमों का बोझ इतना बढ़ चुका है कि तमाम आकलन बताते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में उनका समय पर निपटारा कठिन है। न्यायालयों और न्यायाधिकरणों में जितने मामलों का निपटारा होता है, उससे अधिक दर्ज हो जाते हैं। लंबित मुकदमों का निपटारा करने के लिए कुछ देशों ने एआइ के उपयोग को बढ़ावा देना शुरू किया है। अपने देश में इसे लेकर विचार-विमर्श तो हो रहा है, लेकिन अभी एआइ के समुचित उपयोग को लेकर बहुत आगे नहीं बढ़ा जा सका है।
कुछ कानूनी फर्मों ने एआइ का उपयोग दस्तावेज तैयार करने, डाटा की समीक्षा करने आदि में अवश्य शुरू किया है, लेकिन अभी वह पर्याप्त तरीके से नहीं हो रहा है। अच्छा यह होगा कि एआइ के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए और ई-कोर्ट परियोजना पर इस तरह से अमल सुनिश्चित किया जाए, ताकि लंबित मामलों के तेजी से निपटारे में मदद मिले। इससे आम लोगों एवं निवेशकों को राहत मिलेगी और इसके नतीजे में आर्थिक प्रक्रिया को बल मिलेगा। न्यायिक तंत्र को एआइ का उपयोग करने के साथ ही न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के संसाधन को सक्षम बनाने के उपाय भी करने होंगे।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।