सीबीपी श्रीवास्तव। उच्चतम न्यायालय द्वारा मानहानि के अपराधीकरण के विषय पर की गई टिप्पणी ने इस मुद्दे को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है। हाल में कई अवसरों पर इससे संबंधित कानून के दुरुपयोग को देखते हुए यह विषय और भी गंभीर हो गया है। विधि के शासन के अंतर्गत कानून की यथोचित प्रक्रिया के विस्तार के साथ न्यायालय द्वारा नए अधिकारों की पहचान कर उनके लिए दावा करने की पद्धति बताई जाती है, लेकिन यह देखना भी आवश्यक होता है कि किन्हीं दो अधिकारों के बीच कोई टकराव न हो।

ऐसी ही एक स्थिति अभी चर्चा का विषय है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के दायरे में मान्यता प्राप्त प्रतिष्ठा के अधिकार के बीच किस प्रकार संतुलन बनाया जाए। ऐसे संतुलन के लिए ही मानहानि का प्रविधान संविधान और कानून में किया गया है। अनुच्छेद 19(2) में मूल अधिकारों पर निर्बंधन लगाने के एक आधार के रूप में मानहानि उल्लिखित है। इसी प्रकार अपकृत्य विधि के तहत सिविल मानहानि और भारतीय न्याय संहिता की धारा 356 के तहत आपराधिक मानहानि का उल्लेख है।

इसके अनुसार उन व्यक्तियों को दंडित किया जाएगा, जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने की मंशा से या यह जानते हुए कि इससे हानि होगी, कोई झूठा बयान देते या प्रकाशित करते हैं। ऐसे प्रविधान का उद्देश्य सामाजिक हितों का संरक्षण करना और किसी व्यक्ति या संस्था की प्रतिष्ठा पर होने वाले हमलों को रोकना है। विदित है कि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाला लिखित, मुद्रित या स्थायी रूप से व्यक्त कोई भी बयान आपराधिक मानहानि के दायरे में आ सकता है।

2016 में उच्चतम न्यायालय ने सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ मामले में आपराधिक मानहानि के कानूनी उपबंधों को संवैधानिक रूप से वैध कहा था, लेकिन एक दशक के भीतर ही न्यायालय द्वारा इसके विअपराधीकरण के लिए टिप्पणी करना इस तथ्य का द्योतक है कि ऐसे कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है और यह कदाचित धन उगाही का एक साधन बन गया है। 2016 में न्यायालय ने उस तर्क को खारिज कर दिया था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 499 (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 356) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से असंगत है।

न्यायालय ने इस आधार पर आपराधिक मानहानि को संवैधानिक रूप से वैध कहा कि अनुच्छेद 19(1)(ए) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हालांकि एक बुनियादी प्राकृतिक अधिकार होने के साथ-साथ मौलिक स्वतंत्रता भी है, किंतु यह निरपेक्ष नहीं है। इस पर मानहानि के आधार पर विवेकपूर्ण निर्बंधन संभव है। इस संबंध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानहानि के बीच आनुपातिक संबंध होना चाहिए। यानी सद्भावनापूर्वक निष्पक्ष टिप्पणी, लोक सेवकों की सकारात्मक आलोचना, लोक नीतियों या न्यायिक कार्यवाहियों पर निष्पक्ष राय रखना कहीं से भी मानहानि का आधार नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई भी निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों से असंगत होगा।

इसके विपरीत प्रतिष्ठा के अधिकार की सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जो जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है। इस कारण दोनों अधिकारों के बीच संतुलन अनिवार्य है। 22वें विधि आयोग ने भी 2024 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि हालांकि अभिव्यक्ति और प्रतिष्ठा के अधिकारों के बीच संतुलन होना चाहिए, लेकिन निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की रक्षा अधिक महत्वपूर्ण होगी, क्योंकि यह जीवन के अधिकार का अनिवार्य घटक है। विधि आयोग का यह विचार इस आधार पर उचित प्रतीत होता है कि जीवन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए गरिमा की रक्षा उसकी अनिवार्य शर्त है, लेकिन जहां प्रतिष्ठा का अधिकार एक व्यक्तिगत अधिकार है, वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सामान्यीकृत अधिकार।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक स्वतंत्रता भी है और यही सभी स्वतंत्रताओं की जननी भी है। ऐसी स्थिति में प्रतिष्ठा के अधिकार को अभिव्यक्ति पर वरीयता देने से व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिष्ठा की रक्षा तो अवश्य होगी, लेकिन सामान्यीकृत अधिकार का संरक्षण नहीं हो पाएगा। इस कारण संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण के लिए दोनों का संतुलन अनिवार्य है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुच्छेद 19(2) के तहत युक्तियुक्त निर्बंधन लगाने के आधार उल्लिखित हैं, लेकिन आपराधिक मानहानि के कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।

इस आलोक में यदि उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी उचित है कि मानहानि का विअपराधीकरण होना चाहिए। अगर हम इस विषय को संविधान के स्वर्णिम त्रिभुज के संदर्भ में देखें तो और स्पष्ट होगा। न्यायालय ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1978 मामले में स्वर्णिम त्रिभुज का उल्लेख किया था, जिसके अनुसार इस त्रिभुज का निर्माण अनुच्छेद 21, 19 और 14 से हुआ है। इसलिए इन तीनों ही उपबंधों को संतुलित किया जाना चाहिए। किसी एक को दूसरे पर वरीयता देना आनुपातिकता के सिद्धांत से भी असंगत होगा और यह संवैधानिक नैतिकता के विरुद्ध भी होगा। अतः इस दृष्टिकोण से भी आपराधिक मानहानि के कानून को देखा जाना चाहिए और उसके दुरुपयोग को रोकने का प्रविधान किया जाना चाहिए।

(लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)