विचार: सदाबहार मित्र के साथ शिखर वार्ता, मास्को ने दिल्ली को कभी निराश नहीं किया
यह शिखर सम्मेलन उसकी प्रतिबद्धताओं पर नए सिरे से प्रकाश डालने का ही काम करेगा। यह सही है कि बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों और सामरिक खरीदारी में विविधीकरण के भारतीय प्रयासों के बीच रूस की भारतीय हथियार बाजार में हिस्सेदारी कम हो रही है, लेकिन वह एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता तो बना ही रहेगा।
HighLights
भारत-रूस शिखर सम्मेलन आज से शुरू हो रहा है
रक्षा सहयोग पर गहन चर्चा होने की उम्मीद है
एस-400 मिसाइल सौदे पर मंथन संभव है
हर्ष वी. पंत। आज से दो दिवसीय भारत-रूस शिखर सम्मेलन आरंभ होने जा रहा है। इसमें अन्य अनेक मुद्दों के साथ ही रक्षा सहयोग पर गहन चर्चा की उम्मीद है। इस दौरान दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच भी बैठक होगी। दोनों रक्षा मंत्रियों के बीच यह इस साल की दूसरी बैठक है। इस दौरान कई समझौतों पर मंथन होगा। समझौतों के लिए वार्ता के इस क्रम में सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली एस-400, पांचवीं पीढ़ी के सुखोई विमानों की खरीद और विभिन्न रक्षा उपकरणों के साझा उत्पादन जैसे प्रमुख पहलू शामिल होंगे। शीत युद्ध के दौर से ही रूस भारत का सबसे प्रमुख रक्षा साझेदार बनकर उभरा है, जिसने समय-समय पर भारत को प्रमुख हथियारों की आपूर्ति अनवरत बनाए रखी। प्रगाढ़ होते द्विपक्षीय रक्षा सहयोग को कई पहलुओं ने प्रेरित किया है।
मास्को ने नई दिल्ली के साथ सैन्य तकनीक साझा करने और भारत में निर्माण की मंशा से 1962 में मिग-21 के उत्पादन की दिशा में पहल की थी। उसी दौर में अमेरिका सैन्य साजोसामान की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगाने में लगा हुआ था। अमेरिका द्वारा 1965 में लगाए गए ऐसे प्रतिबंधों के उलट पूर्ववर्ती सोवियत संघ ने 1967 में भारतीय वायु सेना को सुखोई-7 बमवर्षक विमानों की आपूर्ति करके उसे सशक्त बनाया। ये विमान प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के पास उस समय उपलब्ध विमानों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत थे।
उसके अगले दशक में सोवियत संघ ने रक्षा विविधीकरण से जुड़ी भारत की संवेदनशीलता एवं आवश्यकताओं को समझते हुए उसे उन्नत हथियारों एवं तकनीक से लैस करने के प्रयास तेज किए। इनमें टैंक, लड़ाकू विमानों, मिसाइल की आपूर्ति के साथ ही युद्धपोतों को उन्नत बनाया गया। दोनों देशों के बीच विश्वास का ऐसा भाव बढ़ा कि सोवियत संघ ने 1987 में भारत को परमाणु संचालित पनडुब्बी भी लीज पर दी। इसके बाद एक ऐसा समय आया कि सोवियत संघ स्वयं आंतरिक उथल-पुथल से ग्रस्त हुआ और उसका स्वाभाविक असर भारत के साथ रक्षा सहयोग पर भी पड़ा। हालांकि इस सदी के पहले दशक में नवीन स्वरूप में रूस ने इस साझेदारी को नए सिरे से आगे बढ़ाना शुरू किया। इस अवधि में रूस द्वारा उपलब्ध कराए गए हथियारों और उपकरणों में विमान, हेलीकाप्टर, युद्धक टैंक, मिसाइलें, फ्रिगेट और पनडुब्बियां शामिल थीं।
रूस ने एक नई परमाणु संचालित पनडुब्बी लीज पर देने के अलावा विमान वाहक पोत के स्तर पर भी सहयोग किया। दोनों देशों के बीच रक्षा संबंधों की मजबूती का आकलन इसी से किया जा सकता है कि तमाम आवश्यकताओं के लिए भारत आज भी रूसी प्लेटफार्म की ओर देखता है। टी-72 और टी-90 जैसे युद्धक टैंक भारतीय सेना के टैंक बेड़े की बुनियाद बने हुए हुए हैं। इसी तरह सुखोई एसयू-30 विमान को भारतीय वायु सेना की रीढ़ माना जाता है। ब्रह्मोस मिसाइल को अगर दोनों देशों के सामरिक सहयोग एवं संयुक्त उत्पादन क्षमताओं का शिखर कह दिया जाए तो कहीं गलत नहीं होगा। इस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ने आपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान पर ऐसा कहर बरपाया कि दुनिया के तमाम देश इसे खरीदने की कतार लगाए हुए हैं। ब्रह्मोस को और उन्नत एवं मारक बनाने की प्रक्रिया भी प्रगति पर है।
भारत-रूस रक्षा साझेदारी की निरंतरता एवं स्थायित्व में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह साझेदारी हर कसौटी पर खरी उतरी है। इसमें कभी गतिरोध या अविश्वास का भाव नहीं रहा। यही कारण है कि दूसरे देशों से रक्षा खरीद के साथ ही आज भी भारत के लिए रूसी सैन्य उपकरणों के लिए रखरखाव और पुर्जों की आवश्यकता बनी हुई है। अच्छी बात है कि भारत अब टैंकों और लड़ाकू विमानों के लिए नए इंजनों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। रूस द्वारा नए इंजनों के विकास से भारत को भी अपना बेड़ा उन्नत बनाने का अवसर मिल रहा है। मास्को द्वारा सुखोई एसयू-30एमकेआइ बेड़े के लिए उन्नत एएल-41 इंजनों
की आपूर्ति का प्रस्ताव इसी पहल से जुड़ा है।
कोई भी साझेदारी परस्पर हितों को सम्मान देने पर ही समृद्ध होती है और इस मामले में मास्को ने कभी निराश नहीं किया। तकनीकी हस्तांतरण और स्थानीय उत्पादन के भारत के आग्रह को समझते हुए रूस की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक रही है। सुखोई एसयू-57 विमानों के हालिया सौदे में इसके संकेत भी मिले हैं। सामुद्रिक मोर्चे पर भारत की सामरिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक पोत बनाने के लिए गैस टरबाइन जैसे प्रमुख घटक की आपूर्ति को लेकर भी रूस ने प्रभावी समाधान निकालने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।
आपरेशन सिंदूर के दौरान एस-400 प्रणाली कितनी उपयोगी साबित हुई, उसे फिर से बताने की आवश्यकता नहीं। रूस की इस कारगर हथियार प्रणाली की महत्ता को समझते हुए ही भारत ने इसका बेड़ा बढ़ाने का फैसला किया है। करीब 120, 200, 250 और 380 किलोमीटर मारक क्षमताओं वाली एस-400 खरीदने से जुड़े अनुबंध पर चर्चा जारी है। चूंकि यह वार्ता अभी आरंभिक चरण में है, इसलिए उसमें कुछ समय लग सकता है। इसके अलावा यूक्रेन युद्ध में रूस की सक्रियता भी इसमें कुछ देरी का कारण बन सकती है।
यह बहुत स्वाभाविक है कि यूक्रेन युद्ध के कारण रूस की पहली प्राथमिकता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की होगी। इसके बावजूद भारत की आवश्यकताओं को लेकर रूस की कोई उदासीनता नहीं दिखी। यह शिखर सम्मेलन उसकी प्रतिबद्धताओं पर नए सिरे से प्रकाश डालने का ही काम करेगा। यह सही है कि बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों और सामरिक खरीदारी में विविधीकरण के भारतीय प्रयासों के बीच रूस की भारतीय हथियार बाजार में हिस्सेदारी कम हो रही है, लेकिन वह एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता तो बना ही रहेगा।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)









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