विचार: बिहार की जरूरत बने नीतीश कुमार, सत्ता विरोधी प्रभाव को उलटने वाले दुर्लभ नेता
बिहार की राजनीति में भाजपा का साथ मिलने से नीतीश कुमार की स्वीकार्यता बढ़ी। उधर लालू यादव की राजनीति के चलते राजद का जनाधार घटता गया। उनकी छवि को आघात तब पहुंचा, जब उन्होंने चारा घोटाले में फंसने के बाद पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद सौंपने का फैसला लिया-और वह भी तब जब उनका राजनीतिक अनुभव शून्य था।
HighLights
भाजपा से नीतीश कुमार को मिला समर्थन
राजद का जनाधार लगातार घटता गया
राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना विवादित
केसी त्यागी। नीतीश कुमार एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं तो एक समय उनसे भी बड़े कद के नेता समझे जाने और राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले लालू प्रसाद यादव पूरी तरह निस्तेज हो चुके हैं और उनका राष्ट्रीय जनता दल संकट में है। नीतीश कुमार लगभग 20 साल से मुख्यमंत्री पद पर हैं। वे केंद्र में मंत्री भी रहे हैं।
इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद भी उन पर न तो किसी तरह के घपले-घोटाले के आरोप हैं और न ही परिवादवाद या भाई-भतीजावाद के। उनकी यही छवि उन्हें औरों से अलग बनाती है। वे एक ऐसे नेता के रुप में सामने आए, जिसे इस बार के विधानसभा चुनावों में लोगों ने फिर से सत्ता में लाने के लिए मतदान किया। 20 साल बाद भी सत्ता विरोधी के बजाय सत्ता अनुकूल प्रभाव की मिसाल देने वाले वे विरले नेता हैं।
कभी जनता दल में लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे नेता एक साथ थे। बिहार में 1989 का लोकसभा चुनाव और 1990 का विधानसभा चुनाव लालू-नीतीश के संयुक्त नेतृत्व में ही लड़ा गया था। लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनने के बाद अलग राह पर चलने लगे। 1994 में जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में समता पार्टी का गठन हुआ, लेकिन तब बिहार में सामाजिक परिवर्तन की चाह इतनी तीव्र थी कि लालू यादव का करिश्मा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में समता पार्टी बुरी तरह पराजित हुई, लेकिन नीतीश कुमार के हौसले में कमी नहीं आई। उसी समय अटल-आडवाणी और जार्ज-नीतीश ने मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर राजग की घोषणा की और राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा जमावड़ा उसके इर्दगिर्द कायम होने लगा।
बिहार की राजनीति में भाजपा का साथ मिलने से नीतीश कुमार की स्वीकार्यता बढ़ी। उधर लालू यादव की राजनीति के चलते राजद का जनाधार घटता गया। उनकी छवि को आघात तब पहुंचा, जब उन्होंने चारा घोटाले में फंसने के बाद पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद सौंपने का फैसला लिया-और वह भी तब जब उनका राजनीतिक अनुभव शून्य था।
इस पर गौर करें कि जहां लालू यादव जेल जाने की नौबत आने पर राजनीतिक अनुभव से शून्य पत्नी को सत्ता सौंपने का निर्णय लेते हैं वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद नीतीश कुमार ने उसकी जिम्मेदारी लेते हुए जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। इससे पता चलता है कि एक साथ राजनीति शुरू करने वाले नेता अपनी राजनीति को किस तरह अलग दिशा देते हैं। 2000 आते-आते लालू यादव पिछड़ों के एक खास तबके के ही नेता बनकर रह गए और उधर नीतीश कुमार अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में कामयाब रहे। हालांकि उनके सामने कई चुनौतियां कायम रहीं।
2000 के विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार को राज्य के मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गई, लेकिन राजग सरकार को बहुमत का विश्वास प्राप्त न होने कारण उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद उन्हें अटल सरकार में केंद्रीय मंत्री बनने का अवसर मिला। उन्होंने कृषि, रेलवे, जहाजरानी आदि मंत्रालय संभाले। उनके मंत्रालयों के संचालन में आई पारदर्शिता और कार्यकुशलता ने उन्हें लालू यादव के सामने एक बड़ी लकीर के रूप में लाकर खड़ा कर दिया। बिहार में खास तौर पर गांव, गली में दोनों के कार्य करने के तरीकों की चर्चा होने लगी। ऐसे ही माहौल में 2005 का विधानसभा चुनाव प्रारंभ हुआ। चुनावों में राजग ने मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करने में हिचकिचाहट दिखाई। जदयू में भी नीतीश कुमार के नाम पर सभी एकमत नहीं थे। पहले चरण के चुनाव का आकलन राजग के पक्ष में नहीं दिख रहा था। ऐसे ही माहौल में एक दिन चुनाव प्रचार के सिलसिले में जब नीतीश कुमार एक सभास्थल की ओर बढ़ रहे थे कि एक पत्रकार मित्र ने समाचार दिया कि लालकृष्ण आडवाणी ने रांची में मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के नाम की घोषणा की है। इसके बाद नीतीश की सभाओं में अचानक अधिक भीड़ उमड़ने लगी।
2005 में नतीजे राजग के पक्ष में आए, लेकिन बहुमत का आंकड़ा फिर भी कुछ छिटक गया। तब रामविलास पासवान ने दोनों गठबंधनों से दूरी बनाकर अलग चुनाव लड़ा था और वे अपनी 29 सीटों के साथ किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाने पर जोर दे रहे थे। उनके किसी पाले में न जाने के कारण विधानसभा त्रिशंकु हो चली थी। विधायकों में विधानसभा भंग होने की आशंका के कारण असुरक्षा का भाव बढ़ रहा था। इसी दौरान पार्टी अध्यक्ष जार्ज फर्नांडिस के आवास पर एक आवश्यक बैठक आहूत की गई।
बैठक में नीतीश कुमार, शरद यादव, राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, दिग्विजय सिंह, प्रभुनाथ सिंह के साथ मैं भी मौजूद था। काफी विचार-विमर्श के बाद एक नेता का सुझाव आया कि विधायकों से बात करके कुछ धनराशि का प्रबंध किया जाना चाहिए, ताकि सरकार बनाने का सिलसिला आगे बढ़े। यह बात सुनकर नीतीश कुमार हाथ जोड़कर बोले कि यदि इस तरीके से मुख्यमंत्री पद प्राप्त होना है तो वह मुझे नहीं चाहिए।
इस घटनाक्रम के बाद शुचिता और सिद्धांतों की राजनीति करने वालों वालों की निगाह में उनका कद मुख्यमंत्री पद से बड़ा दिखने लगा। अक्टूबर 2005 में पुन: चुनाव होते हैं और जनता दल-यू 88 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरता है और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं और यहीं से एक नए बिहार के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।
(लेखक पूर्व सांसद हैं)













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