जागरण संपादकीय: बचने न पाएं माओवादी, खात्मे का लक्ष्य आसानी से पूरा होना जरूरी
बंगाल में अपनी कमर टूटने पर नक्सलियों ने ही आंध्र में माओवादियों का चोला धारण किया। अब वे किसी तरह का अन्य कोई चोला धारण न करने पाएं, इसके लिए विचारधारा के स्तर पर भी उनका सामना किया जाना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पिछड़े और विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में विकास के कामों को समय रहते पूरे करने पर जोर दिया जाए।
HighLights
विचारधारा के स्तर पर भी उनका सामना ज़रूरी।
आदिवासी इलाकों में विकास कार्यों पर ज़ोर।
कुख्यात माओवादी सरगना हिड़मा के अपने कई साथियों संग मारे जाने के दूसरे दिन जिस तरह कुछ और माओवादी मार गिराए गए, उससे माओवाद अंतिम सांसें गिनते हुए दिखने लगा है। अब यह उम्मीद बढ़ गई है कि अगले वर्ष मार्च तक माओवाद के खात्मे का लक्ष्य आसानी से पूरा हो जाएगा। ऐसा होता हुआ इसलिए दिख रहा है, क्योंकि अब तीन-चार माओवादी सरगना ही ऐसे रह गए हैं, जो पस्त पड़े अपने साथियों का नेतृत्व कर सकने में समर्थ हैं। यदि वे हथियार नहीं डालते तो उनका सफाया करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।
बचे-खुचे माओवादियों को मुख्यधारा में आने के लिए अवश्य कहा जाना चाहिए, लेकिन उनके खिलाफ जो अभियान जारी है, उसमें कोई नरमी इसलिए नहीं आने दी जानी चाहिए, क्योंकि अतीत में उन्होंने निष्क्रिय रहकर अपने को फिर से संगठित करने के साथ ही ताकतवर भी बना लिया था। इस बार उन्हें कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि उनके हथियार डालने की शर्तें अत्यधिक उदार हैं। जो इन उदार शर्तों का लाभ उठाने को तैयार नहीं, उन्हें यह संदेश देने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि उनका बचना संभव नहीं। मुख्यधारा में शामिल होने से इन्कार करने और अपनी लड़ाई जारी रखने वाले माओवादी किसी नरमी के हकदार नहीं हो सकते।
जितना जरूरी यह है कि हथियारबंद माओवादियों के खिलाफ दबाव और बढ़ाया जाए, उतना ही यह भी कि उन्हें वैचारिक खुराक देने वाले उनके दबे-छिपे समर्थकों पर शिंकजा कसा जाए। माओवाद सभ्य समाज विरोधी एक विषैली विचारधारा है। इस खतरनाक विचारधारा के लिए भारत में कोई स्थान नहीं हो सकता। यह सही समय है कि उन नकली मानवाधिकारवादियों पर भी निगाह रखी जाए, जो माओवादियों को गरीबों की लड़ाई लड़ने वाला बताते हैं।
कुछ तो ऐसे हैं, जो खूंखार माओवादियों को बंदूकधारी गांधीवादी तक बता चुके हैं। तथ्य यह भी है कि वाम दलों को माओवादियों के खिलाफ जारी अभियान रास नहीं आ रहा है। ये दल इस अभियान को तो कठोर बताते हैं, लेकिन माओवादियों की बर्बरता के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोलते। उन्हें यह भी नहीं दिखता कि माओवादी विकास के बैरी बन चुके हैं और वे सबसे अधिक नुकसान उन आदिवासियों को ही पहुंचा रहे हैं, जिनके हितैषी होने का फर्जी दावा करते हैं। एक समय माओवाद नक्सलवाद के रूप में था।
बंगाल में अपनी कमर टूटने पर नक्सलियों ने ही आंध्र में माओवादियों का चोला धारण किया। अब वे किसी तरह का अन्य कोई चोला धारण न करने पाएं, इसके लिए विचारधारा के स्तर पर भी उनका सामना किया जाना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पिछड़े और विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में विकास के कामों को समय रहते पूरे करने पर जोर दिया जाए।













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