विकास सारस्वत। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने बीते दिनों यह कह कर सनसनी फैला दी कि पूर्ववर्ती जगनमोहन रेड्डी के शासन में तिरुपति मंदिर के लड्डू प्रसाद में चर्बी युक्त घी का प्रयोग हुआ था। उल्लेखनीय है कि तिरुपति मंदिर का प्रबंधन तिरुमला तिरुपति देवस्थानम यानी टीटीडी नामक सरकारी ट्रस्ट करता है। टीटीडी के कार्यकारी अधिकारी जे. श्यामला राव ने बताया कि नई सरकार बनने के बाद टीटीडी के नए कार्यकारी अधिकारी के रूप में उन्होंने प्रसाद में प्रयोग होने वाले घी की गुणवत्ता जांचने के आदेश दिए थे।

घी के पांच आपूर्तिकर्ताओं में से एक एआर डेरी के नमूनों में घोर अनियमितता मिली। घी की शुद्धता एस वैल्यू में मापी जाती है और इसका निर्धारित मानक 95.68 से लेकर 104.32 के बीच रहना चाहिए, लेकिन एआर डेरी के सैंपल की एस वैल्यू मात्र 19.72 पाई गई। सैंपल के इतने निम्न स्तर को देखते हुए उसके घी में वसा यानी बीफ टैलो, सुअर की चर्बी और मछली के तेल के मिश्रण की आशंका व्यक्त की गई। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है एआर डेरी को ही द्रमुक शासनकाल में तमिलनाडु के पलनी मंदिर में भी घी आपूर्ति का ठेका मिला है।

हालांकि, जगन रेड्डी और एआर डेरी ने आरोपों को निराधार बताया है, परंतु नमूनों की लैब रिपोर्ट कुछ और ही कहानी कहती है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि तिरुपति जैसे संपन्न मंदिर में जिस प्रसाद को श्रद्धालु पैसे देकर खरीदते हैं, वहां सरकारी कंपनी केएमएफ के भरोसेमंद उत्पाद नंदिनी को छोड़कर अनजान आपूर्तिकर्ताओं से घी क्यों लिया गया? हिंदू विरोधी छवि से ग्रस्त जगन रेड्डी और द्रमुक सरकारों द्वारा एक ही डेरी को अनुबंधित करना भी असामान्य लगता है। घी में पशु चर्बी होने का आरोप अत्यधिक गंभीर है।

ध्यान रहे कि अतीत में धोखे से गोमांस खिलाकर हिंदुओं के सामने मतांतरण माफिया ने धर्म भ्रष्ट होने का डर और ऐसी स्थिति में मतांतरण को ही एकमात्र समाधान बताकर पेश किया है। जगन द्वारा आरोपों के खंडन पर इसलिए भी भरोसा मुश्किल है, क्योंकि टीटीडी पर कब्जे और उसकी गतिविधियों में जगन एवं मुख्यमंत्री रहे उनके पिता वाई. सैमुअल राजशेखर रेड्डी का रिकार्ड विवादास्पद रहा है। ईसाई मूल के पिता-पुत्र ने ऐसे दो लोगों को टीटीडी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया, जिन पर ईसाई होने के आरोप लगे। हालांकि इन दोनों अधिकारियों करुणाकर रेड्डी भूमना और वाईवी सुब्बा रेड्डी ने इन आरोपों का खंडन किया, परंतु भूमना की पुत्री के ईसाई पद्धति से विवाह का वीडियो सार्वजनिक हुआ था। नक्सली पृष्ठभूमि से आए करुणाकर रेड्डी का ऐसा बयान भी सार्वजनिक है, जिसमें उन्होंने भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति को काला पत्थर बताकर उसे चप्पल से पीटने की बात कही है। पेरियार सरीखे घृणित बयान देने वाले व्यक्ति को पिता और पुत्र ने दो बार टीटीडी का अध्यक्ष बनाया।

रेड्डी पिता-पुत्र की मंशा पर इसलिए भी सवाल उठते हैं, क्योंकि वह अपने खास रिश्तेदारों को टीटीडी अध्यक्ष पद पर कायम रखना चाहते हैं। भूमना और वाईवी रेड्डी दोनों ही जगन के करीबी रिश्तेदार हैं। तिरुपति स्थित तिरुमला की सात पहाड़ियों को भगवान वेंकटेश्वर का पृथ्वी पर निवास माना गया है और यहां किसी और मजहब के उपासना स्थल बनाने की मनाही है, लेकिन राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री काल और करुणाकर रेड्डी के टीटीडी कार्यकारी अधिकारी रहते दोनों ने पवित्र क्षेत्र को केवल दो पहाड़ियों तक सीमित करने के प्रयास किए। उसी दौरान तिरुपति में कई चर्च और एक बड़ी मस्जिद अस्तित्व में आई और टीटीडी में बहुत से गैर-हिंदुओं को नौकरी भी मिली। इसके साथ ही तिरुपति में अम्यूजमेंट पार्क जैसे मनोरंजन स्थलों को बढ़ावा देकर हिंदू आस्था के एक बड़े तीर्थ की पवित्रता को हल्का करने का प्रयास भी हुआ।

तिरुपति प्रसाद पर पैदा हुआ वर्तमान विवाद हिंदू आस्था पर भीषण आघात है। श्रीश्री रविशंकर समेत कई आध्यात्मिक गुरुओं ने इस प्रकरण की तुलना 1857 की क्रांति में गोमांस से भरे कारतूसों के उपयोग से पैदा हुए उत्तेजनात्मक कृत्य से की है। यह दुखद स्थिति इसलिए भी निर्मित हुई, क्योंकि सरकारी नियंत्रण होने के कारण बड़े-बड़े मंदिर गैर हिंदू और नास्तिकों के कब्जे में आते रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब तक किसी संस्थान को लेकर स्पष्ट कानून न हो, संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत वे सभी संस्थान भी राज्य की परिभाषा में आ जाते हैं, जिन पर स्थायी या अस्थायी रूप से सरकारी नियंत्रण हो। ऐसे में नियुक्तियां, खरीद और प्रबंधन इत्यादि पर राजकीय नीतियां ही लागू होती हैं। इस कारण गैर-हिंदुओं की नियुक्तियां कानूनसम्मत हो जाती हैं, जिनका उपयोग बुरी नीयत वाले नेता हिंदुओं को मुंह चिढ़ाने और उनकी आस्था को रौंदने के लिए करते हैं। आज तिरुपति प्रसाद में चर्बी मिलाने का मामला है तो कभी मंदिरों से मूर्तियों की तस्करी, गहने चुराने और मंदिरों की जमीन हड़पने की खबरें आती रही हैं।

तिरुपति मंदिर के ठीक सामने ईसाईयत के प्रचार को बढ़ावा दिया गया है। मंदिरों पर श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए चढ़ावे का गैर-धार्मिक कार्यों में किया गया उपयोग दानराशि की सरकारी लूट का माध्यम बन गया है। उदाहरण के तौर पर 2002 में कर्नाटक एचआरसीई विभाग ने विभिन्न मंदिरों से 72 करोड़ रुपये प्राप्त किए, परंतु मंदिरों को रखरखाव के लिए वापस केवल 10 करोड़ रुपये दिए। तिरुपति में हुए हालिया अनाचार के बाद यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि सालाना करीब 1,200 करोड़ रुपये का चढ़ावा प्राप्त करने वाले मंदिर में प्रसाद सामग्री की गुणवत्ता जांचने के लिए एक छोटी सी प्रयोगशाला भी नहीं है। इस प्रकरण में जिस तरह हिंदू भावनाओं को रौंदा गया, उसे देखते हुए दोषियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए, जो एक मिसाल बने। इसके साथ ही हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्ति भी मिलनी चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हिंदू समाज स्वयं सरकार के समक्ष मंदिर प्रबंधन और प्रशासन का एक सर्वसमावेशी और मजबूत खाका पेश करे। यदि इतने गंभीर प्रकरण के बाद भी मंदिरों को हिंदू नियंत्रण में वापस देने की कवायद शुरू नहीं होती तो इस प्रकरण पर उपजा आक्रोश व्यर्थ है। अन्य समुदायों को अपने धर्मस्थलों की देखरेख का जैसा अधिकार है, आखिर वैसा हिंदुओं को क्यों नहीं है?

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)