जागरण संपादकीय: वेतन आयोग की सौगात, 70 लाख पेंशनधारक लाभान्वित होंगे
चंद क्षेत्र ही ऐसे हैं, जहां सरकारी कामकाज का स्तर सुधरा है। आखिर निजी क्षेत्र अपने कर्मचारियों को जिस तरह जवाबदेही के दायरे में रखता है, वैसे ही केंद्र और राज्य सरकारें क्यों नहीं रख सकतीं और वह भी तब जब वे सुशासन का दावा करती रहती हैं?
HighLights
आठवें वेतन आयोग को मंजूरी
70 लाख पेंशनभोगियों को लाभ
केंद्रीय कैबिनेट की ओर से आठवें वेतन आयोग के गठन को स्वीकृति मोदी सरकार की उस घोषणा पर अमल ही है, जो उसकी ओर से इस वर्ष के प्रारंभ में की गई थी। आठवां वेतन आयोग इसलिए भी गठित होना ही था, क्योंकि प्रति दस वर्ष में ऐसा किया जाता है। आठवां वेतन आयोग अपनी संस्तुति तो करीब 18 महीने में देगा, लेकिन उन पर अमल अगले वर्ष जनवरी से होगा।
इस वेतन आयोग से 50 लाख केंद्रीय कर्मचारियों के साथ करीब 70 लाख पेंशनधारक लाभान्वित होंगे। आठवां वेतन आयोग गठित करने का फैसला केंद्र सरकार के कर्मचारियों के साथ-साथ राज्य सरकारों के कर्मियों को भी प्रसन्न करने वाला है, क्योंकि जैसे ही केंद्रीय सत्ता वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी देती है, वैसे ही एक के बाद एक राज्य सरकारें भी इन सिफारिशों के अनुरूप अपने कर्मियों के वेतन-भत्ते बढ़ाने लगती हैं।
समय के साथ केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारियों का वेतन बढ़ना ही चाहिए, क्योंकि महंगाई बढ़ती रहती है। महंगाई के इस दौर में सरकारी कर्मी अपना जीवनयापन सुगम तरीके से तभी कर सकते हैं, जब वे वित्तीय रूप से सक्षम बने रहें, पर उनके बढ़े हुए वेतन-भत्तों का लाभ समाज और देश को भी मिलना चाहिए। यह समय की मांग है कि वेतन आयोग को सरकारी कर्मियों के वेतन-भत्ते बढ़ाने के साथ ही ऐसी भी संस्तुतियां करने को कहा जाए, जिनसे सरकारी कर्मियों की जवाबदेही और उनकी कार्यकुशलता बढ़े। इसका कोई औचित्य नहीं कि सरकारी कर्मियों का वेतन तो बढ़ता रहे, लेकिन उनकी जवाबदेही का स्तर जस का तस रहे।
जवाबदेही के अभाव में सरकारी कामकाज से केवल आम लोग असंतुष्ट ही नहीं होते, बल्कि सरकारों के विकास एवं जनकल्याण संबंधी लक्ष्य भी नहीं पूरे होते। इतना ही नहीं, इससे सरकारी कामकाज में नियमों एवं मानकों की अनदेखी भी बढ़ती है और भ्रष्ट तौर-तरीके भी। क्या यह किसी से छिपा है कि जहां किसी तरह का निर्माण होता है या फिर सरकारी तंत्र की अनुमति-संस्तुति या निरीक्षण-परीक्षण चाहिए होता है, वहां आम तौर पर लेन-देन होता है? इससे देश के आगे बढ़ने की गति बाधित होती है।
इसके बाद भी पता नहीं क्यों सरकारी कामकाज को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए जा रहे हैं? भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के तमाम दावों और लोकपाल-लोकायुक्तों के गठन के बाद भी सरकारी तंत्र के रंग-ढंग एक बड़ी हद तक पहले जैसे ही हैं। चंद क्षेत्र ही ऐसे हैं, जहां सरकारी कामकाज का स्तर सुधरा है। आखिर निजी क्षेत्र अपने कर्मचारियों को जिस तरह जवाबदेही के दायरे में रखता है, वैसे ही केंद्र और राज्य सरकारें क्यों नहीं रख सकतीं और वह भी तब जब वे सुशासन का दावा करती रहती हैं?













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