विचार: प्रदर्शन का जरिया बनी राजनीति, मतदाताओं की चिंता किसी को नहीं
मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझकर जांच-पड़ताल और तथ्यपरक पत्रकारिता को बढ़ावा देना होगा। यदि लोकतंत्र के आत्मा को बचाना चाहते हैं तो जनता को भी रवैया बदलना होगा। भारत का लोकतंत्र विश्व की सबसे बड़ी नागरिक-भागीदारी का मंच है। यह मंच तभी सार्थक है जब नीति, प्रतिस्पर्धा, स्कूल, अस्पताल, रोजगार, स्थानीय बुनियादी ढांचा केंद्र में हों। सादगी कोई सजावट की वस्तु नहीं, भारतीय राजनीति का आत्मा है। इसको सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी पार्टियों, संस्थाओं और सबसे बढ़कर मतदाताओं की है।
HighLights
आज उनके काफिले में 40-50 महंगी गाड़ियां होना सामान्य
ब्रजेश कुमार तिवारी। महात्मा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण आदि ने भारतीय राजनीति में सरल जीवन, सादगी, संयम और उच्च विचार की भावना को बढ़ावा दिया, लेकिन बीते दो-तीन दशकों में भारतीय लोकतंत्र का मूल उद्देश्य प्रतिनिधित्व, जवाबदेही और लोकसेवा की जगह बाहरी आडंबर, चमक-दमक और महंगे प्रचार तंत्र की ओर झुका हुआ दिखता है। पहले नेता साधारण कारों से यात्रा करते थे, आज उनके काफिले में 40-50 महंगी गाड़ियां होना सामान्य है।
नेताओं के साथ दौड़ते वाहनों की कतारें, हूटर, कमांडो स्टाइल सुरक्षा और समर्थकों के बीच शक्ति-प्रदर्शन का माहौल अपने आप में नई तरह की राजनीति का संदेश देता है। राजनीति अब विचार, नीति और काम की जगह दिखावे की भाषा बोल रही है। यह दृश्य अब आम हो गया है, पर क्या यह लोकतंत्र की भावना को दर्शाता है या एक नई राजनीति की पहचान है, जहां सत्ता प्रदर्शन का माध्यम बन गई है?
इन दिनों बिहार में विधानसभा का चुनाव हो रहा है। राज्य में चुनाव प्रचार के नाम पर पैसे और प्रभाव का प्रदर्शन हो रहा है। इसे बाहुबली छवि वाले प्रत्याशी खास तौर पर कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रथम चरण के मतदान के लिए खड़े हुए कुल 1303 उम्मीदवारों में से 423 (32 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें 354 उम्मीदवारों (27 प्रतिशत) ने बताया है कि उनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इससे पहले 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में 241 विजेता सदस्यों में से 163 (68 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। यह आंकड़ा 2015 में 58 प्रतिशत था।
एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के विश्लेषण के अनुसार लोकसभा में 543 सदस्यों में से 251 सदस्य ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इनमें से 170 (31 प्रतिशत) के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। विधानसभाओं का परिदृश्य भी अलग नहीं है। 28 राज्यों एवं तीन केंद्रशासित प्रदेशों के 4092 विधायकों में से 1861 (45 प्रतिशत) ने अपने हलफनामे में खुद के खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। राजनीति का अपराधीकरण चुनाव दर चुनाव संस्थागत होता जा रहा है। वर्तमान लोकसभा में 93 प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं। 2009 में यह आंकड़ा 58 प्रतिशत, 2014 में 82 प्रतिशत और 2019 में 88 प्रतिशत था।
2024 में पुनः चुनाव लड़ रहे सांसदों की औसत परिसंपत्तियां पांच वर्षों में 43 प्रतिशत बढ़ीं। यह आंकड़ा बताता है कि सत्ता तक पहुंच आर्थिक पूंजी को तेजी प्रदान करती है। कारों के काफिले की लंबाई और ‘शो-आफ’ का बजट यहीं से आता है। यह बदलाव नई राजनीति की पहचान है, जहां नेता राजा जैसे दिखते हैं। लोकतांत्रिक राजनीति में भीड़ और जुलूस का परंपरागत स्थान रहा है, परंतु आज यह केवल समर्थन नहीं दर्शाता, बल्कि प्रभुत्व का संकेत देता है।
गाड़ियों का लंबा काफिला यह ‘आश्वस्ति’ देता है कि नेता ‘ताकतवर’ है और ‘अपने लोगों’ की ‘रक्षा’ कर सकता है। यही मनोविज्ञान चुनाव-पूर्व डर और समर्पण पैदा करता है। इंटरनेट मीडिया के ड्रोन शाट्स और रील्स ने इसे और बढ़ाया है। काफिला जितना बड़ा और सिनेमाई दिखे, नेता को उतना ज्यादा बड़ा माना जाता है। बड़े काफिले, भव्य मंच, चौबीसों घंटे ब्रांडिंग, एआइ संचालित वीडियो और डिजिटल विज्ञापनबाजी अब राजनीति का केंद्रीय आधार बन चुके हैं। यह टिकट वितरण, उम्मीदवारी, नीति-निर्माण और मतदाता को भी प्रभावित करते है। इसी खिड़की से अपराध और धनशक्ति का गठजोड़ लोकतंत्र के भीतर न्यू नार्मल बनता दिख रहा है।
सेंटर फार मीडिया स्टडीज ने 2024 के लोकसभा चुनाव का कुल अनुमानित खर्च एक लाख करोड़ रुपये से भी अधिक आंका। तब 9,000 करोड़ के आसपास की नकदी, शराब, ड्रग्स, बहुमूल्य धातुएं और ‘फ्रीबीज’ की जब्तियां हुई थीं। यह आंकड़ा प्रचार-युद्ध के शीर्ष-स्तर को परिभाषित करता है और यह भी इंगित करता है कि निर्वाचन की प्रक्रिया भारत में विश्व की सबसे महंगी लोकतांत्रिक कवायदों में से एक बन चुकी है। सही मायने में यह चुनावी वित्त और आपराधिक नेटवर्क के गठजोड़ की गवाही है।
जब चुनावी दान नीति-निर्माण को प्रभावित करे तो जनहित का स्थान ‘रिटर्न-आन-इन्वेस्टमेंट’ ले ही लेगा। नियमों को सख्ती से लागू करके इस संरचना को बदलना होगा। हमें राजनीति में गांधी, शास्त्री और पटेल जैसे आदर्शों की पुनर्स्थापना करनी होगी। दलों को टिकट बांटने में योग्यता, चरित्र और सेवा को तरजीह देनी चाहिए, न कि चमक-धमक को। जब अपराधी-नेटवर्क और धनशक्ति टिकट-वितरण का आधार बनेंगे तो ईमानदार कार्यकर्ता हतोत्साहित होंगे।
मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी समझकर जांच-पड़ताल और तथ्यपरक पत्रकारिता को बढ़ावा देना होगा। यदि लोकतंत्र के आत्मा को बचाना चाहते हैं तो जनता को भी रवैया बदलना होगा। भारत का लोकतंत्र विश्व की सबसे बड़ी नागरिक-भागीदारी का मंच है। यह मंच तभी सार्थक है जब नीति, प्रतिस्पर्धा, स्कूल, अस्पताल, रोजगार, स्थानीय बुनियादी ढांचा केंद्र में हों। सादगी कोई सजावट की वस्तु नहीं, भारतीय राजनीति का आत्मा है। इसको सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी पार्टियों, संस्थाओं और सबसे बढ़कर मतदाताओं की है।
(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)













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