हृदयनारायण दीक्षित। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और खुद को सेक्युलर बताने वाली कांग्रेस फिर आमने-सामने हैं। ताजा विवाद कर्नाटक की कांग्रेस सरकार से जुड़ा हुआ है। पिछले दिनों कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने आदेश दिया कि निजी संगठन, व्यक्तियों के समूह और संघ के लिए सरकारी परिसर के उपयोग हेतु पूर्व अनुमति अनिवार्य है। हाई कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी। मुख्यमंत्री ने सनातन परंपरा पर हमला बोलते हुए यह भी कहा था, ‘अपनी संगति सही रखें। सनातनियों और संघियों से दूर रहें।’

उन्होंने कहा कि केंद्रीय सत्ता में आने पर वे संघ को प्रतिबंधित कर देंगे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी संघ पर प्रतिबंध की जरूरत जताई है। उनके बेटे और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खरगे ने भी संघ पर हमला बोला। नियम अनुसार सरकारी कर्मचारी किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबंध नहीं रख सकता और उसकी गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सकता।

केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर लागू सेंट्रल सिविल सर्विसेज कंडक्ट (1964) के अधीन कर्मचारियों के संघ के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध था। बाद में इसे संशोधित किया गया। अब इस सूची में संघ का नाम नहीं है। कांग्रेस द्वारा संघ की गतिविधियों को बाधित करने के प्रयास पहले भी हुए हैं। ऐसा प्रयास भारतीय संविधान (अनुच्छेद 14) के अधीन विचार अभिव्यक्ति की आजादी और संगठन बनाने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

आरएसएस दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। भारतीय संस्कृति आधारित राष्ट्रवादी समाज बनाना उसकी प्राथमिकता है। हिंदुत्व संघ का अधिष्ठान है। संघ ने इस देश की राजनीति, संस्कृति में आधारभूत सकारात्मक हस्तक्षेप किया है। 1925 में जन्मा संघ सौ बरस का हो गया है। उससे ईर्ष्या स्वाभाविक है। 1885 में जन्मी कांग्रेस बूढ़ी हो गई है। संघ विरोधी राजनीतिक विचारधारा सेक्युलरवाद के नाम पर अल्पसंख्यकवाद चलाती रहती है। सेक्युलरवाद ने विचारधाराविहीन समाज बनाने का काम किया है, पर सेक्युलरिज्म तो आयातित और एक विजातीय विचार है। संघ का मूल आधार हिंदू राष्ट्रवाद है।

सेक्युलर दल हिंदुत्व और संघ को सांप्रदायिक बताते हैं, पर उनके पास न तो अल्पसंख्यक की परिभाषा है और न ही सांप्रदायिकता की। अल्पसंख्यकवाद ऐसी राजनीति का भयानक प्रेत है। देश में लगभग 14.2 प्रतिशत मुस्लिम हैं। इसके बावजूद सेक्युलर राजनीति उन्हें अल्पसंख्यक बताती है। अल्पसंख्यक की भी कोई परिभाषा नहीं है। राजनीति का मजहबीकरण देश के लिए घातक है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी के समय कहा था कि पहले सांप्रदायिकता की परिभाषा कीजिए। उनकी इस चुनौती को स्वीकार नहीं किया गया।

सेक्युलरवाद की दृष्टि में संघ सांप्रदायिक है और इस्लामी एवं ईसाई विश्वास सेक्युलर हैं। यह दोहरापन है। कांग्रेस को संघ अच्छा नहीं लगता, लेकिन उसे इंडियन मुस्लीम लीग से कोई समस्या नहीं। संघ से खार खाए कथित सेक्युलर नेता अक्सर कोप में आ जाते हैं और उसके खात्मे का एलान करते रहते हैं। कुछ समय पहले तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने संघ के पथ संचलन कार्यक्रम पर रोक लगाई थी। इस रोक को लेकर तर्क दिए गए कि पथ संचलन के कार्यक्रम के रास्ते में मस्जिद और चर्च पड़ते हैं।

इसलिए अनुमति देना संभव नहीं है। मद्रास उच्च न्यायालय ने स्टालिन सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि संघ को अनुमति देने से मना करने का फैसला संविधान के विरुद्ध है और लोकतंत्र के लिए असंगत भी। सरकार का निर्णय मौलिक अधिकारों के भी विरुद्ध है। संघ ने गांधी जयंती और स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने पर भी कार्यक्रम आयोजन की अनुमति मांगी थी। मुख्यमंत्री स्टालिन ने अनुमति नहीं दी। संघ ने तब न्यायालय की शरण ली। संघ के कार्यक्रमों को बाधित करने की कोशिश बंगाल में भी होती रही है।

संघ पर पहला प्रतिबंध महात्मा गांधी की हत्या के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 4 फरवरी, 1948 को लगाया। आरोप लगाया गया कि संघ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने और हिंसक गतिविधियों में संलिप्त है। कहीं कोई साक्ष्य नहीं थे, फिर भी यह प्रतिबंध एक वर्ष तक रहा और 11 जुलाई, 1949 को हटा दिया गया। संघ आगे बढ़ता रहा। वह सेक्युलरपंथियों की आंख की किरकिरी रहा। आपातकाल (1975-1977) में हिंसक गतिविधियों के आरोप के साथ संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध लगाया गया।

आपातकाल में सभी दलों के नेता जेलों में थे। तकलीफ सभी दलों को थी, पर अकेले संघ ने ही विरोध स्वरूप भूमिगत आंदोलन चलाया। सरकार ने संघ को लोकतंत्र विरोधी और विघटनकारी कह प्रतिबंधित कर दिया। 1977 में जनता सरकार सत्ता में आई तो प्रतिबंध हटाया गया। अयोध्या आंदोलन से तमतमाए केंद्र ने 6 दिसंबर, 1992 को संघ पर प्रतिबंध लगाया। आरोप सांप्रदायिक सौहार्द को खतरा पहुंचाने और हिंसा फैलाने का लगाया गया। संघ की भूमिका सिद्ध नहीं हुई। 1993 में प्रतिबंध हटाया गया। संघ ने विचार निष्ठा और विशेष संगठन शैली के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन की हैसियत पाई है। यह तथ्य छद्म सेक्युलरवादियों को हजम नहीं होता।

हिंदुत्व सर्व समावेशी विचार है। सुदीर्घ काल से चली आ रही संस्कृति और उस पर आधारित जीवन पद्धति का नाम है हिंदुत्व। संघ पर पाबंदी लगाने को आतुर सेक्युलरपंथी हिंदुत्व की बढ़त से परेशान हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकारी कर्मचारियों को किसी भी संगठन की गतिविधि में भाग लेने से नहीं रोका। संघ बनाम केके धवन मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने 1970 में फैसला दिया था कि आरएसएस की गतिविधियां राजनीतिक नहीं हैं।

केरल उच्च न्यायालय ने कहा था कि कर्मचारी संघ से जुड़ सकता है। यह सब जानते हुए भी सेक्युलरपंथी संघ से निपटने की बातें करते रहते हैं। कर्मचारी, अधिकारी भी नागरिक हैं। नागरिक होने के कारण उन्हें किसी संगठन के आयोजन में शामिल होने, उत्सव मनाने और सांस्कृतिक जीवन का आनंद लेने का अधिकार है। संघ के समर्थकों को इससे वंचित करना राजनीतिक असहिष्णुता ही है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे हैं)