जागरण संपादकीय: संघ प्रमुख का निमंत्रण, व्यापक चर्चा होना स्वाभाविक
विडंबना यह है कि कुछ लोग भारत को माता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। क्या यह किसी से छिपा है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से भारत माता की जय कहने से बचा जाता है? पिछले दिनों इसी संकीर्ण दृष्टि के कारण वंदे मातरम् के विरोध में स्वर सुनाई दिए।
HighLights
राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका
पर्यावरण संरक्षण का महत्व
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने बेंगलुरु में आयोजित कार्यक्रम में एक प्रश्न के उत्तर में यह जो कहा कि संघ में मुस्लिम, ईसाई समेत किसी भी संप्रदाय के लोग आ सकते हैं, उसकी व्यापक चर्चा होना स्वाभाविक है। ऐसा नहीं है कि इसके पहले संघ में विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आने की अनुमति नहीं थी।
यह अनुमति पहले से है और सच तो यह है कि उसके कार्यक्रमों में विभिन्न संप्रदायों के लोग आते भी हैं। इनमें मुस्लिम और ईसाई भी हैं। इस सबके बाद भी धारणा यह है कि संघ के कार्यक्रमों में केवल हिंदू संप्रदाय के लोग शामिल होते हैं। इस धारणा का कारण यह है कि हिंदू संप्रदाय को लेकर संघ की अपनी विशिष्ट धारणा और परिभाषा है।
उसके अनुसार देश में रहने वाले सभी लोग हिंदू ही हैं, भले ही उनका संप्रदाय और उनकी उपासना पद्धति कुछ भी हो। संघ की ओर से बार-बार यह स्पष्ट किया गया है कि चूंकि इस देश में रहने वाले समस्त लोगों के पूर्वज हिंदू ही थे, इसलिए वह सभी को हिंदू के रूप में देखता, मानता और संबोधित करता है। आखिर इस अवधारणा में कठिनाई क्या है?
यदि संघ इस पर बल देता है कि उसका उद्देश्य हिंदुओं को संगठित करना है तो इसका अर्थ यही है कि वह सभी भारतीयों को संगठित करने के लिए सक्रिय है। कठिनाई यह है कि उसके विरोधी यह प्रचारित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते कि वह तो केवल हिंदू समाज का संगठन है। चूंकि यह दुष्प्रचार बड़े पैमाने पर हो रहा है, इसलिए आवश्यक हो जाता है कि संघ के स्तर पर यह बार-बार स्पष्ट किया जाता रहे कि हिंदू शब्द से उसका आशय क्या है।
इसी से यह मिथ्या धारणा दूर होगी कि वह संप्रदाय विशेष के लोगों को एकजुट करने का कार्य कर रहा है। यदि यह मिथ्या धारणा दूर हो सके तो संघ का कार्य और अधिक आसान हो जाएगा, लेकिन यह मानकर चला जाना चाहिए कि संघ के विरोधी उसके बारे में दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं उठा रखेंगे।
जो भी हो, संघ प्रमुख ने यह कहकर एक तरह से अपने विरोधियों और आलोचकों की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया है कि उसके कार्यक्रमों में सभी संप्रदायों के लोग आ सकते हैं, लेकिन केवल भारत माता के पुत्र के रूप में। उनकी इस पहल का सकारात्मक उत्तर दिया जाना चाहिए। ध्यान रहे कि ऐसी पहल और कोई नहीं करता और न ही संघ की तरह अन्य कोई अपने वैचारिक विरोधियों को सम्मान देता है।
विडंबना यह है कि कुछ लोग भारत को माता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। क्या यह किसी से छिपा है कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से भारत माता की जय कहने से बचा जाता है? पिछले दिनों इसी संकीर्ण दृष्टि के कारण वंदे मातरम् के विरोध में स्वर सुनाई दिए।













कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।