राजीव सचान। चुनाव आयोग की ओर से कल से नौ राज्यों और तीन केंद्रशासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर शुरू कर दिया गया। इसी के साथ उसके विरोध में उठी आवाजें मुखर होनी शुरू हो गईं। तमिलनाडु की स्टालिन सरकार इस प्रक्रिया के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। आने वाले समय में कुछ और लोग एसआइआर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते दिख सकते हैं। इनमें केरल और पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ नेताओं के साथ स्वयं को लोकतंत्र का प्रहरी कहने वाले लोग भी हो सकते हैं। हालांकि बिहार में एसआइआर के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वालों को मुंह की खानी पड़ी।

तमाम दलीलों एवं दुष्प्रचार के बावजूद ऐसे लोग सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सिद्ध नहीं कर सके कि बिहार में एसआइआर के नाम पर कुछ खास वोटरों के नाम इस इरादे से काटे जा रहे हैं कि भाजपा को चुनावी लाभ मिल सके। विपक्षी दलों और उनके समर्थकों की ओर से एसआइआर के विरोध में आशंकाएं तो अनगिनत जताई गईं, लेकिन वे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष निराधार साबित हुईं। इसी कारण एसआइआर बिहार में मुद्दा नहीं बन सका। इसके बाद भी तमिलनाडु, केरल और बंगाल जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों में उसका विरोध हो रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो उसके खिलाफ विरोध मार्च निकाल दिया। क्या एसआइआर के दूसरे चरण का विरोध इसलिए हो रहा है, क्योंकि इन आरोपों में कुछ सत्यांश है कि इसे भाजपा के इशारे पर किया जा रहा है? यदि ऐसा होता तो सुप्रीम कोर्ट इस ओर संकेत ही नहीं करता, उस पर रोक भी लगा देता।

एसआइआर का विरोध इस मानसिकता के तहत हो रहा है कि मोदी सरकार के साथ केंद्रीय संस्थाओं की ओर से जो कुछ भी किया जाता है, वह अनुचित-अवैधानिक ही होता है। इसी कारण मोदी सरकार के हर फैसले और यहां तक कि संसद से पारित होकर कानून बनने वाले विधेयकों का विरोध किया जाता है और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है। इस सिलसिले के थमने के कोई आसार नहीं, क्योंकि सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच की आम सहमति की उस राजनीति का पूरी तरह लोप हो गया है, जो एक समय भारतीय राजनीति का प्रमुख अवयव थी। इसके चलते राष्ट्रीय महत्व के कुछ मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष की ओर से आम सहमति की राजनीति पर चलने की बातें की जाती थीं। आज तो आम सहमति की राजनीति जैसा शब्द भी करीब-करीब प्रचलन से बाहर हो चुका है। इसका स्थान विरोध के लिए विरोध की राजनीति ने ले लिया है। एसआइआर का विरोध इसी राजनीति के तहत हो रहा है।

यह राजनीति इतनी अधिक हावी हो गई है कि कई बार विरोधी दलों की सरकारें केंद्र सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं को भी लागू करने में आनाकानी करती हैं। बंगाल ने अविकसित जिलों के विकास की केंद्र की योजना लागू नहीं की है और दिल्ली में आयुष्मान योजना तब लागू हो पाई, जब आम आदमी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। जब वह दिल्ली की सत्ता में थी तो उसने पीएमश्री योजना में शामिल होने से इन्कार कर दिया था। इन्कार करने वालों में पंजाब और बंगाल भी थे। स्कूलों को उन्नत करने वाली केंद्र की इस योजना में शामिल होने के अपने फैसले को पिछले दिनों केरल सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया, क्योंकि सरकार में शामिल भाकपा को यह रास नहीं आया। इसकी भी अनदेखी न की जाए कि कई राज्यों ने नई शिक्षा नीति को अपनाने के बजाय उसे खारिज करने का फैसला किया है।

अब उन मुद्दों पर भी आम सहमति की राजनीति करने की कोशिश होती भी नहीं दिखती, जिन पर यह माना जाता था कि वे पक्ष-विपक्ष के नहीं, देश के मुद्दे होते हैं। उदाहरणस्वरूप विदेश और रक्षा नीति के कुछ बड़े मसलों पर आम सहमति की राजनीति अपनाई जाती थी। अब इनसे जुड़े मामलों पर ऐसा नहीं होता। आपरेशन सिंदूर के दौरान चंद दिन के लिए ही पक्ष-विपक्ष एकजुट दिखा, लेकिन यह सैन्य अभियान स्थगित होते ही दोनों पक्ष एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए। कुछ विपक्षी नेताओं ने सरकार के साथ सेना पर भी निशाना साधने में संकोच नहीं किया। ऐसा ही गलवन घाटी में चीनी सैनिकों से खूनी झड़प के समय भी देखने को मिला था। राहुल गांधी यह दोहराते ही रहते हैं कि मोदी चीनी राष्ट्रपति और अमेरिकी राष्ट्रपति से डरते हैं। मोदी जब एससीओ सम्मेलन में भाग लेने चीन गए तो विपक्ष ने सवाल उठाए। हाल में जब तालिबान विदेश मंत्री भारत आए तो सरकार की अफगान नीति को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया।

अभी यह स्पष्ट नहीं कि अमेरिका से व्यापार समझौता कब होगा, पर यह साफ है कि वह जब भी होगा, तब विपक्ष उसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करेगा। इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि जब भी यह समझौता होगा, कम से कम कांग्रेस की ओर से यह अवश्य कहा जाएगा कि मोदी ने ट्रंप के समक्ष समर्पण कर दिया। जब विदेश और रक्षा नीति से जुड़े विषय भी दलगत राजनीतिक मतभेदों की भेंट चढ़ जा रहे हों, तब फिर इसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के अन्य विषयों पर एकजुटता या आम सहमति देखने को मिल सकती है। आम सहमति की राजनीति के अभाव का मतलब है राजनीतिक वर्ग के बीच हर मामले में तनाव और तकरार। यह स्थिति पक्ष-विपक्ष के दलगत हित पूरे कर सकती है, देश के हितों का संधान हर्गिज नहीं कर सकती।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)