विचार: बाहुबलियों की बेलगाम राजनीति, चुनावों पर दिखता है सीधा असर
राजनीति में अनियंत्रित हो रहे अपराधीकरण पर लगाम लगाने की जितनी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है, उतनी ही जनता की भी है। दोनों ही पक्षों को यह समझना होगा कि बाहुबलियों के साथ जुड़ने और उन्हें अपने साथ जोड़ने के तात्कालिक लाभ के बजाय कितना दूरगामी नुकसान होता है। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम नई सरकार के गठन के साथ राजनीति में अपराधियों की बढ़ती पैठ को लेकर भी जनता का आदेश सुनाने का काम करेंगे, जिसका असर अन्य चुनावों पर भी पड़ता दिखेगा।
HighLights
मोकामा में बाहुबली नेता की गिरफ्तारी
50% विधायकों पर गंभीर आपराधिक मामले
अपराध और वंशवाद का बढ़ता चलन
राहुल वर्मा। जातिगत समीकरण और राजनीति में अपराधीकरण भारतीय राजनीति की दो कड़वी सच्चाई हैं, जो बिहार के मामले में और मुखरता से सामने आती हैं। बीते दिनों मोकामा में यह फिर से सामने आया, जब जदयू प्रत्याशी और बाहुबली अनंत सिंह की गिरफ्तारी हुई। अनंत सिंह को जनसुराज पार्टी के समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया। दुलारचंद यादव के बारे में भी यही जानकारी सामने आई कि उनकी भी आपराधिक पृष्ठभूमि रही है। अनंत सिंह का मुकाबला राजद प्रत्याशी वीणा देवी से है, जो सूरजभान सिंह की पत्नी हैं।
सूरजभान सिंह का अतीत और वर्तमान भी किसी से छिपा नहीं रहा है। दिलचस्प बात यह भी है कि मोकामा राजधानी पटना से बहुत ज्यादा दूर नहीं है। यह राज्य की एक सीट का हाल है। बाकी का आप सहज अनुमान लगा सकते हैं। आज बिहार में जिन 121 सीटों के लिए पहले चरण का मतदान होने जा रहा है, उसमें करीब 1,300 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स यानी एडीआर के अनुसार इनमें से 30 प्रतिशत उम्मीदवार गंभीर मामलों का सामना कर रहे हैं।
बिहार की राजनीति में दागियों की पैठ कितनी गहरी है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछली विधानसभा में चुने गए 50 प्रतिशत विधायकों पर गंभीर मामले दर्ज थे। यानी हर दूसरे विधायक का दामन दागदार रहा। इनमें भी 16 विधायक ऐसे थे, जिन पर हत्या से जुड़े मामले दर्ज थे, जबकि 30 विधायकों पर हत्या के प्रयास के मामले दर्ज थे। इसमें आठ विधायकों पर तो यौन शोषण जैसे अपराध का आरोप था। इस चुनाव में भी सभी राजनीतिक दलों ने दागियों और उनके परिवार के लोगों को टिकट देने में खूब दरियादिली दिखाई है।
शहाबुद्दीन से लेकर मुन्ना शुक्ला और सुनील पांडे और राजन तिवारी के नाते-रिश्तेदार चुनावी मैदान में उतरकर विधानसभा पहुंचने की व्यूह रचना बनाने में जुटे हैं। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को समस्या तो सभी बताते हैं, लेकिन कोई इसके समाधान के लिए आगे नहीं आता। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर राजनीतिक दलों को दागी इतने क्यों पसंद हैं और अगर दल अपने टिकट पर दागियों को उतारते हैं तो फिर जनता उनकी नैया पार कैसे लगा देती है? इस सवाल के जवाब के लिए कोई बहुत मेहनत-मशक्कत करने की जरूरत नहीं। इसमें सबसे बड़ा पहलू तो राज्य की नाकामी के रूप में सामने आता है।
जब राज्य कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को सुनिश्चित नहीं कर पाता तो कुछ लोग अपने बाहुबल के दम पर ही लोगों को ‘सुरक्षा और न्याय’ दिलाने के ठेकेदार बन जाते हैं। आम लोगों के दुख-दर्द और आड़े वक्त में की गई मदद भी इन्हें जनता के बीच स्थापित करने में मददगार बनती है। ऐसे तमाम एहसानों की कीमत अलग-अलग मौकों पर चुकाई भी जाती है और चुनाव भी उनमें से एक अवसर होता है। चूंकि ऐसे बाहुबलियों का प्रशासनिक अमले में अपना एक दबदबा होता है, इसलिए किसी विनम्र नेता के मुकाबले इनकी बात पर सुनवाई होने के आसार अधिक बढ़ जाते हैं। यह पहलू भी जनता के प्रति इनमें भरोसा बढ़ाता है।
भारतीय समाज और कहें कि बिहार में जातिगत बंधन भी बहुत गहरे हैं तो हर जाति से कोई न कोई बाहुबली आगे निकलकर अपने समुदाय का मसीहा बनने की कोशिश करता है और दूसरी जाति के बाहुबली के मुकाबले अपने लोगों को यह भरोसा दिलाने की पूरी जुगत करता है कि वही उन्हें बचाने के लिए आगे आएगा। यानी बाहुबल में कहीं न कहीं जातीय अस्मिता का भी एक बोध तो दिखता ही है। इस पूरी कवायद में राज्य की अक्षमता ही बाहुबलियों की क्षमताएं बढ़ाने का आधार बनती हैं।
राजनीतिक दलों का भी बाहुबलियों के प्रति बढ़ते दुलार की कई वजहें हैं। सबसे बड़ी वजह तो उनकी जिताऊ क्षमता है कि वे अपने तबके के समर्थन या डरा-धमका कर लोगों को प्रभावित कर नतीजों को अपने पक्ष में करने में आगे रहते हैं। एक वजह यह भी है कि चुनाव अब बहुत खर्चीले होते हैं और बाहुबलियों के पास धन-संसाधनों का कोई अभाव नहीं होता। इसलिए राजनीतिक दलों को इनसे अच्छा-खासा चुनावी चंदा भी मिलता है, जिससे न केवल उनके चुनाव क्षेत्र, बल्कि आसपास के अन्य निर्वाचन क्षेत्रों के लिए भी संसाधनों की पहुंच बढ़ती है।
राजनीति और अपराधीकरण के रिश्तों का तानाबाना भी समय के साथ बदला है। बाहुबली एक समय नेताओं को अपना समर्थन देते रहे और बदले में नेता उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। समय के साथ बाहुबली खुद ही राजनीति में उतरने लगे। अब तो वे अपने साथ-अपने खास करीबियों और परिवार के लोगों को भी राजनीति में स्थापित करने लगे हैं। अपराध और वंशवाद का यह नया खतरनाक चलन लोकतंत्र के लिए बेहद घातक है।
यदि समय के साथ इस चलन पर विराम नहीं लगा तो भविष्य में इसके परिणाम विध्वंसक होंगे, जिसके रुझान पहले से दिखने भी लगे हैं और समय-समय पर दिखते भी रहते हैं। बाहुबलियों के रवैये से यही लगता है कि राजनीति उनके लिए जनता की समस्याओं के समाधान का माध्यम नहीं, बल्कि अपने वर्चस्व को स्थापित करने का एक अखाड़ा है। यह भी जगजाहिर है कि अपनी अवैध गतिविधियों के लिए भी वे राजनीति को एक ढाल बनाने का काम करते हैं।
राजनीति में अनियंत्रित हो रहे अपराधीकरण पर लगाम लगाने की जितनी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है, उतनी ही जनता की भी है। दोनों ही पक्षों को यह समझना होगा कि बाहुबलियों के साथ जुड़ने और उन्हें अपने साथ जोड़ने के तात्कालिक लाभ के बजाय कितना दूरगामी नुकसान होता है। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम नई सरकार के गठन के साथ राजनीति में अपराधियों की बढ़ती पैठ को लेकर भी जनता का आदेश सुनाने का काम करेंगे, जिसका असर अन्य चुनावों पर भी पड़ता दिखेगा।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो और राजनीतिक विश्लेषक हैं)













कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।