विचार: अपनी सामर्थ्य को पहचानने का पर्व, दीपावली हमें भीतर झांकने और स्वयं को पहचानने का संदेश दे रही है
संकेत स्पष्ट हैं कि उपभोग-प्रधान जीवन शैली खतरनाक और भ्रमात्मक है। यह सत्य हमें समझना होगा कि पृथ्वी के संसाधन असीमित नहीं हैं। हम अनेक देशों में देख रहे हैं कि उनका अंधाधुंध इस्तेमाल या संसाधनों का अनियंत्रित दोहन न केवल कूड़ा-कचरा पैदा करता है, बल्कि प्रतिस्पर्धा और हिंसा की प्रवृत्ति को बलवान बना रहा है।
HighLights
- <p>दीपावली: स्वयं को पहचानने का पर्व</p>
- <p>भारत: आर्थिक रूप से मजबूत</p>
- <p>आत्मनिर्भरता: स्वदेशी को अपनाना होगा</p>
गिरीश्वर मिश्र। इस साल दीपावली का पर्व देश के लिए इस अर्थ में विशेष है कि वह हमें स्वयं की पहचान के लिए आमंत्रित कर रहा है। इसका तकाजा है कि हम भ्रमों के आवरण से मुक्त होकर प्रकाश का वरण करें। राह में आते तिमिर को दूर करने के लिए प्रकाश का यह पर्व हमें स्वयं को जगा कर ज्योति का वाहक बनने के लिए प्रेरित करता है। अपनी शक्ति को पहचानना ही वह आधार है, जो आज की वैश्विक अस्थिरता और उथल-पुथल वाले अनिश्चय के वातावरण में हमें सहारा दे सकेगा।
आज के जटिल होते परिवेश में इसे सुखद आश्चर्य ही कहेंगे कि तमाम विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए भारत धन-धान्य की दृष्टि से अनेक देशों की तुलना में और स्वयं अपने पिछली उपलब्धियों की तुलना में उल्लेखनीय रूप से संतोषजनक स्थिति में है। भारत की आर्थिक उन्नति निरंतर प्रगति दर्ज कर रही है। विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर कर भारत ने विश्व को गंभीर संदेश दिए हैं।
घरेलू मांग में बढ़त और आर्थिक नीतियों में महत्वपूर्ण सुधार जैसे कदम भारत को वैश्विक पूंजी प्रवाह का एक प्रमुख केंद्र बना रहे हैं। महंगाई में कमी, रोजगार के अवसरों में वृद्धि और ग्राहकों के उत्साह के साथ बाजार के मजबूत होने के लक्षण दिख रहे हैं। भविष्य में जीडीपी में वृद्धि की पूरी संभावना है। आर्थिक दुनिया में अन्य देशों के साथ आयात-निर्यात के लिए चुनौतियों का दौर चल रहा है। इससे निपटने के लिए विश्व में नए बाजार तलाशे जा रहे हैं और कई देशों के साथ नए समीकरण भी बन रहे हैं।
अनुमान है कि हमारी अर्थव्यवस्था वर्ष 2030 तक 7.3 ट्रिलियन जीडीपी के साथ विश्व में तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगी। इसके साथ ही जनसंख्या में युवा लोगों की बड़े अनुपात में उपस्थिति विकास के अवसर के संकेत उपलब्ध करा रही है। परिवर्तन की बयार लोगों की क्रय-शक्ति में वृद्धि, आधारभूत संरचना में सुधार और खाद्य उत्पादन में बढ़ोतरी में झलक रही है। देश की सीमाओं के निकट सामरिक हलचलों पर भी काफी हद तक काबू पाया गया है। सैन्य बल की क्षमता आतंकी शत्रु को परास्त करने और उसके ठिकानों को ध्वस्त करने में सफल रही है। ज्ञान–विज्ञान और खेलकूद के क्षेत्र में भी उपलब्धि रेखांकित हुई है।
यह दृश्य आम भारतीय को उत्साहित और प्रोत्साहित करता है। तेजी से बदल रहे वैश्विक परिदृश्य में हम ऐसा बहुत कुछ होते भी देख रहे हैं, जो विश्व की मानवता के हित में नहीं है। वह हमें सावधान तथा सचेत रहने के लिए प्रेरित करता है। इस वैश्विक बदलाव का एक प्रमुख संकेत यह है कि दूसरे देश से उधार लेने या खरीदने की जगह देश को स्वयं अपने ही संसाधनों को विकसित करना होगा। स्वदेशी को अपनाना और आत्मनिर्भर होना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में हमें ‘स्वदेशी’ सोच और व्यवस्था को पहचान कर उसे अमल में लाना होगा।
आज जब आत्मनिर्भर देश की संकल्पना की जा रही है तो हमें अपने भीतर झांकने और स्वयं को पहचानने की जरूरत है। आत्मान्वेषण और आत्मानुभव की यह अनिवार्य अपेक्षा होती है कि समय-समय अपनी जांच-परख करते रहा जाय। इसके लिए हमें भारत की विविधता भरी ज्ञान और संस्कृति की अपनी विरासत को स्वीकार कर अनुभव का हिस्सा बनाना होगा। हमारी परंपरा उन्मुक्त और उदार भाव से जीवन जीने का अवसर देती है।
यहां के उत्सव मूल रूप से प्रकृति केंद्रित और समग्र जीवन को समर्थ बनाने की दृष्टि से आयोजित किए जाते हैं। यहां के मनुष्य को सृष्टि की लय की बड़ी चिंता रही है। उसे ऋतुओं का संगीत मुग्ध करता रहा है। यह पूरा जगत उसे देव का काव्य लगा था या फिर ईश्वर का आवास। अपने आत्म के विस्तार के साथ सृष्टि के साथ संगति बिठाना ही श्रेयस्कर होता है, परंतु आज के दौर में आत्म-प्रस्तुति और आत्म-प्रशस्ति ही प्रमुख सरोकार होती जा रही है। इसी का एक पक्ष अपने सामाजिक और भौतिक परिवेश के प्रति संवेदनहीनता के रूप में व्यक्त होता है।
इसी के चलते प्रदूषण की पारिस्थितिकी के बीच जीना आम आदमी की मजबूरी होती जा रही है। आज मिलावट के बाजार में दूध और उससे तैयार होने वाले छेना, मावा तथा घी, मिठाई, दवा, दारू सभी शामिल हो चुके हैं। जीवनदायी जल, वायु, अन्न, जमीन आदि सभी प्रदूषण की चपेट में आ रहे हैं। मानसिक और भावनात्मक प्रदूषण भी अनियंत्रित सा हो रहा है। आपराधिक आंकड़ों का ताजा सार्वजनिक विवरण और मानसिक स्वास्थ्य की रपटें कड़ी चेतावनी दे रही हैं। कर्ज लेकर वापस न दे पाने वाले लोग आत्महत्या कर रहे हैं। अधिकाधिक लोग अवसाद, तनाव, दुश्चिंता से ग्रस्त हो रहे हैं।
संकेत स्पष्ट हैं कि उपभोग-प्रधान जीवन शैली खतरनाक और भ्रमात्मक है। यह सत्य हमें समझना होगा कि पृथ्वी के संसाधन असीमित नहीं हैं। हम अनेक देशों में देख रहे हैं कि उनका अंधाधुंध इस्तेमाल या संसाधनों का अनियंत्रित दोहन न केवल कूड़ा-कचरा पैदा करता है, बल्कि प्रतिस्पर्धा और हिंसा की प्रवृत्ति को बलवान बना रहा है। यह सब यही बता रहा है कि मन के भीतर पैठे मोह, लोभ, ईर्ष्या और द्वेष गहन अंधकार फैला रहे हैं। ये जीवन विरोधी तत्व हैं जिनके प्रभाव में कुछ सूझता नहीं। हमें सृष्टि का आलाप और विलाप दोनों ही सुनना और गुनना होगा। द्रोह और विद्वेष को छोड़ कर जीवन के मूल्य को प्रतिष्ठित करना होगा। सात्विक भाव के साथ ही हम सब भारत को महान देश बना सकेंगे। यही दीवाली का संदेश है।
(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति हैं)
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