कामरान आलम खान। दिल्ली में लाल किले के निकट आतंकी हमले को एक डॉक्टर की ओर से अंजाम दिए जाने के बाद मुस्लिम समाज में बढ़ रही कट्टरता को लेकर नए सिरे से चर्चा चल निकली है। इसलिए और भी, क्योंकि आतंकी हमले करने वाले डॉक्टर के कई साथी भी डाक्टर ही निकले हैं। पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं का आतंक की राह पर चलना पिछले कुछ वर्षों में मुसलमानों के सामाजिक तानेबाने में आए परिवर्तन का नतीजा है।

प्रतिबंधित जाकिर नाइक और इस जैसे कट्टरपंथी तत्वों के बढ़ते प्रभाव ने न केवल मुस्लिम युवाओं के मजहबी व्यवहार, बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को भी प्रभावित किया है। भारतीय रीति-रिवाजों का विरोध, बुर्के और नकाब के चलन पर जोर, शरीयत आधारित जीवनशैली की वकालत और स्थानीय परंपराओं को गैर-इस्लामी बताने की प्रवृत्ति ने भारतीय मुसलमानों के भीतर एक नई तरह का सोच पैदा की है। कभी होली-दीवाली मनाने, मिलजुल कर रहने, संगीत, नृत्य आदि कलाओं में रूचि दिखाने वाले अनेक मुस्लिम अब धीरे-धीरे एक बंद घेरे में सिमटते जा रहे हैं। लगता है अरबीकरण की प्रक्रिया चुपचाप भारतीय इस्लाम के आत्मा को बदल रही है। यह प्रवृत्ति नई नहीं, लेकिन हाल के वर्षों में इसे संगठित और वैचारिक रूप से मजबूत किया गया है। “बैक टू ओरिजिंस” यानी इस्लाम के प्रारंभिक स्वरूप की ओर लौटने का नारा मूल रूप से सामाजिक सुधार का प्रतीक था, पर अब कट्टरपंथी तत्वों ने इसे अलग सांस्कृतिक पहचान के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।

पहनावा, भाषा और सामाजिक आचरण तक को मजहबी सीमा में बांध देने से एक ऐसा चिंतन उभर रहा है, जो भारतीय इस्लाम की मिश्रित, सूफी और मानवीय परंपरा से टकराती है। नतीजा यह है कि आज मुस्लिम समाज के भीतर ही उदार और कट्टरपंथी धाराओं का संघर्ष गहराता जा रहा है।

इस्लाम जब भारत आया, तब उसने यहां की मिट्टी के साथ संवाद स्थापित किया और भारतीय संस्कृति को आत्मसात किया। इसमें सूफियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिन्होंने इस्लाम को प्रेम, करुणा और आत्मीयता के माध्यम से स्थानीय जीवन में समाहित किया। कट्टरपंथी इस्लामिक तत्व इसे हजम नहीं कर पा रहे कि सूफीवाद और हिंदू दर्शन के बीच की समानताएं गहन और प्रभावशाली हैं। इसका उदाहरण मंसूर अल-हिल्लाज का उद्घोष ‘अन-अल-हक’ (मैं सत्य हूं) है।

यह उपनिषदों के महावाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूं) से प्रतिध्वनित होता है। भारत के अधिकांश मुसलमानों के पूर्वज हिंदू ही थे, जिनका मतांतरण ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से हुआ। उनकी नसों में वही भारतीय रक्त प्रवाहित है, जिसने इस भूमि की विविधता और सहिष्णुता को पोषित किया। उनकी संस्कृति, रीतियां और सामाजिक मूल्य सदैव भारतीय जीवन पद्धति से जुड़े रहे, केवल उपासना पद्धति में अंतर आया, परंतु अब एक संगठित प्रयास के तहत उन्हें अपनी इस भारतीय जड़ों से काटकर विदेशी, विशेषकर अरब संस्कृति से जोड़ने का दबाव बनाया जा रहा है। अब अनेक मौलवी सऊदी शेखों की तरह का पहनावा अपनाते हैं, सिर पर कैफीया बांधकर और अरब लहजे में बोलकर यह संकेत देते हैं कि सच्चा मुसलमान वही है, जो अरब जैसा दिखे। यह प्रवृत्ति एक योजनाबद्ध सांस्कृतिक अलगाव का प्रतीक है। पिछले कुछ वर्षों में दावा कार्यक्रमों के माध्यम से मतांतरण और सांस्कृतिक अलगाव की कई घटनाएं सामने आई हैं।


कट्टरपंथी विचारों के प्रसार का सबसे गंभीर और दुखद प्रभाव मुस्लिम समाज की महिलाओं और बच्चों पर पड़ा है। समाज के एक हिस्से में महिलाओं के प्रति असमानता और दमन को मजहब का रूप दे दिया गया है। दीन-ईमान के नाम पर महिलाओं का ब्रेनवाश करके अलग तरह के नकाब और बुर्के के चलन को “मजहब का अनिवार्य हिस्सा” बताया जा रहा है। परिणाम यह है कि अनेक मुस्लिम महिलाएं भी इस कट्टरता की वाहक बन गई हैं। वे साझा संस्कृति से दूर होती जा रही हैं।

चिंताजनक यह है कि वे अपने पर हो रहे अत्याचार को दीन का फर्ज मानकर चुपचाप सह लेती हैं। यह एक गहरी सामाजिक त्रासदी है, जहां मजहबी शिक्षा के नाम पर महिला अधिकारों का हनन किया जा रहा है। इसका प्रभाव मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में प्रत्यक्ष दिखाई देता है। अब बाजारों में महिलाओं का पहनावा और सामाजिक व्यवहार किसी पिछड़े अफगान कस्बे जैसा प्रतीत होता है। मुस्लिम इलाकों की सामाजिक संरचना में स्त्रियों की स्वतंत्र उपस्थिति लगभग समाप्त सी हो चुकी है। यह केवल मजहबी कट्टरता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पतन का संकेत है।

शिक्षित मुस्लिम युवाओं के तकनीकी कौशल का उपयोग करके कट्टरपंथी यूट्यूब चैनल्स और ग्रुप चैट्स के जरिए अपनी विचारधारा को “आधुनिक लिबास” में प्रस्तुत करते हैं। कट्टरपंथी तत्वों ने अब शिक्षा क्षेत्र में भी गहरी पैठ बना ली है। उनके द्वारा स्थापित आधुनिक स्कूल किसी बोर्ड से मान्यता प्राप्त होते हैं, परंतु उनमें भी आधुनिक शिक्षा के आवरण में बच्चों को सुनियोजित तरीके से कट्टरता का पाठ पढ़ाया जा रहा है। इन संस्थानों ने प्रशासनिक संदेह से बचने के लिए कुछ प्रतीकात्मक कदम उठाए हैं, जैसे कई स्कूलों ने अपनी वेबसाइट पर बच्चों के हाथों में तिरंगा दिखाकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे राष्ट्रवादी और समावेशी हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। इन स्कूलों में गैर-मुस्लिम छात्रों और शिक्षकों की संख्या या तो बहुत कम है या लगभग शून्य।

भारत की साझा संस्कृति सह-अस्तित्व और परस्पर सम्मान की भूमि पर खड़ी है। ऐसे में भारतीय इस्लाम की उदार परंपरा को तोड़कर अरबी और वहाबी संस्कृति का अंधानुकरण बढ़ावा देने वाले कृत्य एक प्रकार के सांस्कृतिक विभाजन को बढ़ावा दे रहे हैं। यह प्रवृत्ति हिंदू-मुस्लिम संबंधों में तनाव बढ़ा रही है। सामाजिक जागरूकता और वैचारिक सजगता ही सांस्कृतिक विभाजन की चुनौती का दीर्घकालिक समाधान दे सकती है। शिक्षित मुस्लिम वर्ग को यह समझना होगा कि भारतीय इस्लाम अपनी आभा खो रहा है।

(लेखक सहायक प्राध्यापक हैं)